दोस्तों आज की पोस्ट उत्तराखंड के बारे में है,आज हम
जानेंगे की उत्तराखंड में कौन-
कौन से आन्दोलन हुए और उनका क्या असर हुआ.
असहयोग आन्दोलन
सन 1920 में गाँधीजी द्वारा शुरू किये गये असहयोग आन्दोलन में
उत्तराखंड के
लोगो ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया.इस आन्दोलन के दौरान ही 1921 में बद्रीदत्त
पाण्डेय,हरगोविंद पन्त, आर चिरंजीलाल के नेतृतव में कुमाऊ मंडल के 40 हजार
स्वतंत्रता सेनानियों ने बागेश्वर में सरयू के तट पर कुली बेगार न करने की शपथली
सविनय अवज्ञा आन्दोलन
सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान 26 जनवरी 1930 को टिहरी
रियासत को
छोड़करपुरे उत्तराखंड में जगह-जगह पर तिरंगा फ़हराया गया और कई स्थानों पर
नमक बनाया गया.सविनय अवज्ञा के क्रम में दांडी मार्च के लिए साबरमती से दांडी
तक
महात्मा गाँधी के साथ गए 78 सत्याग्रिह्यो में तीन (ज्योतिराम कांडपाल,भैरव
दत्त जोशी
और गोरखावीर खड़क बहादुर) उत्तराखंड के थे,
भारत छोड़ो आन्दोलन
अगस्त 1942 में उत्तराखंड में जगह जगह प्रदर्शन व हड़ताले
हुई.देघाट (अल्मोड़ा) में
पुलिस ने आंदोलनकारियो पर गोलिया चलाई,जिससे हिरामनी,हरिकृष्ण,बद्रीदत्त
व
कांडपाल शहीद हो गये.
भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान नैनीताल व चमोली के डाक बंगले
और कई सरकारी
इमारते जलाई गयी.
भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान मालती देवी के नेतृत्व में “देश
सेवक संगठन” से
सम्बन्ध विद्या देवी,कुंती देवी,सरस्वती, भागीरथी आदि महिलाओं ने रेल
संपत्ति को
काफी क्षति पहुंचाई जिसके लिए इन महिलाओं को 15-15 वर्ष की कारागार की
सजा
सुनाई गई थी.
उत्तराखंड का अन्य-जन आन्दोलन
कुली बेगार आन्दोलन अंग्रजी शासनकाल में अंग्रेज अधिकारियों
के कही आने जाने के
समय उसके समान को गाँव वालो को ढोना पड़ता था.एक गाँव वालो को
उस समान
को दुसरे गाँव तक पहुँचाना पड़ता था,इस प्रकार रस्ते में पड़ने वाले सभी
गाँवो से यह
बेगार ली जाती थी इसके लिए गाँव के मुखिया के पास एक बेगार रजिस्टर
होता था
उत्तराखंड की जनता इस कार्य को सम्मानं के विरुद्ध मानती थी और इसके विरुद्ध
कई वर्षो से आन्दोलन कर रही थी,13-14 जनवरी 1921 को बागेश्वर में सरयू के
किनारे
उतारयनी मेले में बद्रीदत्त पाण्डेय,हरगोविंद पन्त व चिरंजीलाल ले नेतृत्व में
लगभग
40 हजार आंदोलनकारियो ने बेगार न देने का संकल्प लिया और बेगार
रजिस्टरो को सरयू
नदी में बहा दिया यही से इस कुप्रथा का अंत हो गया.
टिहरी राज्य आन्दोलन
प्रजातंत्र की मांग को लेकर टिहरी रियासत में 20वी शताब्दी
के तीसरे दशक से जन
आन्दोलन होने लगे थे 1939 में श्रीदेवसुमन,दौलतराम,नागेन्द्र
सकलानी एवं वीरचन्द्र
सिंह गढ़वाली के प्रयासों से प्रजामंडल की स्थापना हुई,1944
में श्रीदेवसुमन को
गिरफ्तार कर जेल में दाल दिया गया और बे अनिश्चितकालीन भूख
हड़ताल पर बैठ
गये और 25 जुलाई 1944 को 84 दिन के भूख हड़ताल के बाद उनका निधन हो
गया.
डोला पालकी आन्दोलन
सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ शिल्पकारो(दलितों) के इस आन्दोलन
का उद्देश्य सवर्ण दूल्हो के समान स्तिथि को प्राप्त करना
था.इस आन्दोलन से पूर्व
राज्य में शिल्पकारो को शादी या अन्य अवसरों पर डोला पालकी
में बैठने का हक़
नही था.यहव्यवस्था केवल उच्च वर्ग के लिये ही थी .दलित वर्ग का
दूल्हा या दुल्हन
पैदल ही जाते थे इस वयवस्था के खिलाफ जयानंद भारती के नेतृतव में
1930 में
चले आन्दोलन के बाद शिल्पकारो को यह आधिकार मिल गया.
ध्यातव्य हो की 1911 में हरिप्रसाद ने दलितों के लिए
शिल्पकार शब्द प्रयुक्त किया
था.
कोटा खर्रा आन्दोलन
स्वतंत्रता के बाद किसान संगठनों के नेतृतव में चले इस
आन्दोलन का उद्देश्य राज्य
के तराई क्षेत्रों में सीलिंग कानून को लागू कराकर
भूमिहीनों तथा किसानो को भूमि
वितरण कराना था
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