स्वतंत्रता पश्चात् भारत चीन सीमा विवाद Post Independence India China Border Issue

भारत-चीन संबंध नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सरकार के साथ अपने राजनयिक सम्बंध स्थापित किये। 1 अक्टूबर, 1949 को चीन में स्थापित माओत्से तुंग की साम्यवादी सरकार को भारत ने दिसंबर 1949 में अपनी मान्यता दे दी तथा उसे संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाने हेतु भरपूर समर्थन दिया। इस प्रकार आजादी के बाद से ही भारत ने चीन के प्रति मित्रतापूर्वक संबंधों का निर्वहन किया किंतु इसके परिणाम भारत के लिए घोर निराशाजनक साबित हुए।
भारत-चीन के बीच उत्पन्न तनावों को समझने के लिए तिब्बत में चीन की गतिविधियों, सीमाविवादों तथा 1962 के चीनी आक्रमण से जुड़े विभिन्न पहलुओं को जानना आवश्यक है।
तिब्बत संबंधी विवाद
अक्टूबर 1950 में चीन की जनमुक्ति सेना ने तिब्बत पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया। तिब्बत, भारत एवं चीन के मध्य एक ‘बफर राज्य' के रूप में स्थापित था। तिब्बत क्षेत्र में 2000 मील की सीमा पर ब्रिटिश शासनकाल से ही भारत को नियंत्रण का अधिकार प्राप्त था। चीन की इस आक्रामक कार्यवाही से विचलित होने के बावजूद भारत ने उसके साथ मित्रतापूर्ण संबंध कायम रखने का निर्णय किया और 1954 में चीन के साथ संधि करके तिब्बत पर उसके अधिकार को मान्यता दे दी। इस संधि में भारत एवं चीन के आपसी संबंधों के निर्देशक के रूप में पंचशील सिद्धांतों को शामिल किया गया।
उक्त संधि के तहत भारत ने चीन को दिल्ली, कलकत्ता और कलिंगपोंग में अपने वाणिज्यिक अभिकरण स्थापित करने की सुविधा प्रदान की, जबकि चीन ने भारत को तिब्बत में अपना व्यापार केंद्र स्थापित करने की छूट दी।
चीन द्वारा सुनियोजित ढंग से तिब्बत की स्वायत्तता कम करते जाने के प्रयासों के फलस्वरूप मार्च 1959 में तिब्बत में एक जनविद्रोह भड़क उठा। चीन ने इस विद्रोह को दमनपूर्ण उपायों द्वारा कुचल दिया, जिसका भारत में जनता के स्तर पर गंभीर विरोध किया गया। भारत द्वारा तिब्बती धर्मगुरु दलाईलामा तथा उनके अनुयायियों को राजनैतिक शरण प्रदान की गई किंतु भारत सरकार ने तिब्बत सरकार को कोई मान्यता नहीं दी। फिर भी चीन द्वारा खुलेरूप से भारत को तिब्बत में विद्रोह भड़काने का जिम्मेदार ठहराया गया और 1959 में लोंगण तथा लद्दाख क्षेत्र में 12000 वर्ग मील भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया गया। सितंबर 1959 में भारत-चीन सम्बंधों पर पहला श्वेतपत्र भारतीय संसद में पेश किया गया, जिसमें संयुक्त राष्ट्र के सामने स्पष्ट किया गया कि 1954 के समझौते के शैशवकाल में ही भारत और चीन की सेनाएं सीमाक्षेत्र में तनावपूर्ण वातावरण में तैनात थीं। दोनों देशों के मध्य सीमा समस्या पर अनेक विरोधपत्रों, स्मरण-पत्रों तथा ज्ञापनों का अदन-प्रदान भी हुआ, जिनमे दोनों देशों द्वारा अपने-अपने दावे पेश किये गये थे।
भारत-चीन सीमा विवाद
चीन ने भारत के 40000 वर्गमील क्षेत्र पर अपना दावा पेश किया और भारतीय सीमा का उल्लंघन करना प्रारंभ कर दिया। चीन का दावा था कि भारतीय सरकार और चीन की केंद्रीय सरकार के मध्य ऐतिहासिक तौर पर कोई संधि नहीं हुई थी। उसने पहले से स्थित मैकमोहन रेखा को अवैध घोषित किया क्योंकि यह चीन के तिब्बती क्षेत्र पर ब्रिटिश आक्रामक नीतियों का परिणाम थी।
दूसरी ओर भारत का मानना था कि दोनों देशों के बीच स्थित ऐतिहासिक सीमाएं उच्चतम जलप्रवाह के भौगोलिक सिद्धांत पर आधारित थीं और अधिकांश क्षेत्र में दोनों देशों की तत्कालीन सरकारों द्वारा सम्पन्न विशिष्ट समझौतों में उन सीमाओं को मान्यता दी गयी थी। 1959-62 के मध्य चीन द्वारा निरंतर भारतीय सीमाओं का उल्लंघन करने के बावजूद भारत ने शांतिपूर्ण उपायों द्वारा ही सीमा विवाद को सुलझाने के प्रयास किये। दोनों देशों के अधिकारियों द्वारा कई बार आपसी वार्ताएं की गई। अप्रैल 1960 में चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने भी भारत यात्रा की। किंतु समस्या का कोई समाधान नहीं खोजा जा सका।
1962 का चीनी आक्रमण
8 सितंबर, 1962 को चीनी सेनाओं ने सोचे-विचारे ढंग से उत्तरी-पूर्वी सीमांत एजेंसी (नेफा, आधुनिक अरुणाचल प्रदेश) क्षेत्र में मैकमोहन रेखा का अतिक्रमण कर लिया। 20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने लद्दाख से नेफा तक की समूची सीमा पर पूरी तरह आक्रमण कर दिया। चीन के इस गंभीर और जबरदस्त आक्रमण के समक्ष भारतीय सेनाओं को हार का सामना करना पड़ा और एक बड़े भारतीय भू-भाग पर चीन का आधिपत्य स्थापित हो गया। युद्ध के दौरान भारत को पश्चिमी शक्तियों तथा सोवियत संघ दोनों से सहायता प्राप्त हुई। 21 नवंबर, 1962 को चीन द्वारा नाटकीय ढंग से समूचे सीमा क्षेत्र में युद्धविराम की एकतरफा घोषणा कर दी गयी और वास्तविक नियंत्रण रेखा से 20 किमी. पीछे हटने का एलान किया गया। लेकिन इसके बावजूद भी लद्दाख महत्व के क्षेत्र पर चीन का कब्जा जमा रहा। चीन द्वारा भारत को यह चेतावनी भी दी गयी कि यदि भारत पूर्वी क्षेत्र की वास्तविक नियंत्रण रेखा से आगे बढ़ा अथवा मध्य एवं पश्चिमी क्षेत्र की वास्तविक नियंत्रण रेखा से पीछे हटने को राजी नहीं होता है, तो वह भारत पर पुनः आक्रमण करेगा।
इसी मध्य 1962 में 6 एफ्रो एशियाई देशों- इंडोनेशिया म्यांमार, संयुक्त अरब गणराज्य, घाना, श्रीलंका द्वारा ‘कोलंबो प्रस्ताव' के माध्यम से दोनों देशों के मध्य समझौता कराने का प्रयास किया गया। इस प्रस्ताव के अनुसार चीन को पारंपरिक सीमा रेखा से 20 किमी. पीछे हटाने, पूर्वी क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा को दोनों देशों द्वारा युद्धविराम रेखा के रूप में स्वीकार करने तथा मध्यक्षेत्र में यथास्थिति कायम रखे जाने का प्रावधान था।
भारत ने कोलंबो प्रस्ताव को स्वीकृति प्रदान कर दी किंतु चीन ने मैकमोहन रेखा पर भारतीय सेना की तैनाती और असैनिक घोषित क्षेत्र में नागरिक चौकी स्थापित करने के अधिकार को चुनौती देते हुए उक्त प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया। इस प्रकार भारत-चीन के मध्य सम्बंधों में गतिरोध बना रहा।

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